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Ashtavakra Gita - Class Of Achievers

Ashtavakra Gita

अष्टावक्र गीता

अष्टावक्र गीता( Ashtavakra Gita ) अद्वैत वेदान्त का ग्रंथ है यह ज्ञान योग की सबसे महत्वपूर्ण पुस्तकों में से एक है। अष्टावक्र गीता के श्रोता श्री जनक जी हैं और वक्ता श्री अष्टावक्र जी ( Ashtavakra ) हैं।

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श्री गणेशाय नमः, श्री गुरवे नमः, श्री परमात्मने नमः

इस ज्ञान का आरम्भ मुमुक्षु लोगों द्वारा पूछे गए तीन प्रश्नों से होता है-

1. ज्ञान कैसे प्राप्त होता है?

2. मुक्ति कैसे प्राप्त होती है?

3. वैराग्य कैसे प्राप्त होता है? 

ये प्रश्न ही वास्तव में संपूर्ण अध्यात्मव का सार हैं, जिसको अपने आचरण एवं व्यवहार में उतारकर ही जीव दुर्लभ ‘मनुष्य योनि’ को सार्थक कर सकता है।

मनुष्य चार प्रकार के होते हैं- 

1. ज्ञानी- जिसे ज्ञान प्राप्त हो चुका है। 

2. मुमुक्षु- जो ज्ञान-प्राप्ति के लिए लालायित है और हर क़ीमत पर उसे प्राप्त करने को तत्पर है।

3. अज्ञानी- जिसे शास्त्रों आदि का ज्ञान तो है, पर उपलब्धि के प्रति उसमें रूचि नहीं है।

4. मूढ़- जिसे अध्यात्म जगत् का कुछ पता नही है और न जानना ही चाहता है। 

वैराग्य

आत्मज्ञान के लिए वैराग्य का होना परम आवश्यक है, क्यूँकि इसके बिना मनुष्य आत्मज्ञान का अधिकारी नहीं बनता।

इसलिए आत्मज्ञान के विषय में बताने से पहले वैराग्य का स्वरूप बताते है। जो की तीसरा प्रश्न है।

वैराग्य क्या है?

वैराग्य का अर्थ संसार को छोड़ना या उससे पलायन करना नही है, प्रत्युत विवेक द्वारा विषयों को अंनत दुःख एवं बंधन का कारण समझकर उनसे पूर्णत्या अरुचि हो जाना तथा उनमें व्याप्त सर्वथा संग दोष से निवृत हो जाना ही वैराग्य है। भोग- वृति का त्याग, अनित्य वस्तुओं में आसक्ति का त्याग ही वैराग्य है।

हमने भगवान से विमुख होकर अपने शरीर एवं इस नश्वर संसार से जो संबंध मान लिए हैं, उनके प्रति जो आसक्ति उत्पन्न कर ली है, उस आसक्ति का त्याग ही वैराग्य है। यदि विचार किया जाए तो वास्तव में संसार बंधन नहीं प्रत्युत उसके प्रति जो आसक्ति का मुख्य कारण हैअहंकार। जब तक यह है, आसक्ति होगी ही।

अहंकार क्या है- यह अंतःकरण की एक वृति है। यह दो प्रकार का होता है- वास्तविक, जैसे मैं आत्मा हूँ; अवास्तविक, जैसे मैं शरीर हूँ।

संसार और आत्मा दो छोर हैं। बाहर है संसार, भीरत है आत्मा (परमात्मा)। ये दोनो मार्ग विभिन्न दिशाओं में जा रहे हैं। मनुष्य इन दोनो के मध्य में खड़ा है। यदि वह संसार की ओर भागता है तो परमात्मा से दूर होता है यदि वह परमात्मा की ओर जाना चाहता है तो उसे संसार से संबंध- विच्छेद करना ही होगा। यदि वह संसार के प्रति आसक्ति का केवल त्याग भर कर देता है तो ज्ञान-प्राप्ति का अधिकारी बन जाता है। मनुष्य में अहंकार के कारण ही लोभ, मोह, वासना आदि पैदा होते है, जिससे वह कर्म-जाल के इस बंधन में फँस जाता है।

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आत्मज्ञान

अध्यात्म में ज्ञान का अर्थ है-आत्मज्ञान। आत्मज्ञान ही परमात्मा का ज्ञान है, क्यूँकि आत्मा से परमात्मा भिन्न नहीं हैं।

आत्मज्ञान क्या है – मनुष्य शरीर मात्र नही है, वह चैतन्य आत्मा है। आत्मा ही उसका वास्तविक स्वरूप है। यह शरीर, मन, बुद्धि आदि उसके दास हैं, जो उसके आदेशानुसार कार्य करते है।

“आत्मा सूक्ष्म है”, जिसके ज्ञान के अभाव में ऐसी भ्रांति होती है कि मैं शरीर हूँ।

इस भ्रांति का निवारण: तू न पृथ्वी है, न जल है, न अग्नि है, न वायु और न ही आकाश है।इन पंच तत्वों से बना तू भौतिक शरीर नहीं है। ये पंच तत्व भौतिक, अनित्य एवं नष्ट होने वाले हैं। मृत्यु के बाद नष्ट हो जाएँगे, तू फिर भी जीवित रहेगा। मृत्यु के बाद भी तू अपनी अगली यात्रा में निकल जाएगा। यह शरीर वस्त्र मात्र है। पुराने को त्याग नए शरीर रूपी वस्त्र धारण कर लेना।भौतिक पदार्थों से बना यह शरीर रूपी घर है, तू इसमें निवास करनेवाला साक्षी चैतन्य रूप है। संपूर्ण भौतिक जगत् का आधार चैतन्य है। तू भी वही चैतन्य है।”

यही ज्ञान है। मनुष्य यदि समस्त दृश्य-प्रपंच का साक्षी, द्रष्टा बन जाता है तो आत्म-बोध हो जाएगा।

आत्मा का स्वरूप-

१. आत्मा साक्षी है, यह सबका द्रष्टा है। यह सबको देखता है, पर इसको कोई नही देखता। यह तुम्हारा होना है।

२. आत्मा व्यापक है, इसे किसी प्रकार सीमित नहीं किया जा सकता, किसी मान्यता या परिभाषा में कैद भी नही किया जा सकता है।

३. आत्मा भी ब्रह्मा की तरह पूर्ण है। इसमें कोई अपूर्णता नहीं है।’ईशावास्य’ उपनिषद के अनुसार – “वह पूर्ण है और यह भी पूर्ण है, क्यूँकि पूर्ण से ही पूर्ण की उत्पत्ति होती है तथा पूर्ण का पूर्णत्व लेकर पूर्ण ही बचा रहता है।”

४. जब आत्मा एक है तब ब्रह्मा भी एक ही है। सभी जीवो में भिन्न-भिन्न आत्मा नहीं है। भिन्नता अज्ञान और भ्रम से प्रतीत होती है। जिन्हें आत्मा का, ब्रह्मा का ज्ञान नही है वे ही भिन्न-भिन्न जीवों में स्थित आत्मा को भिन्न-भिन्न मान लेते हैं।

५. आत्मा मुक्त है- आत्मा का कोई बंधन नहीं है। वास्तव में शरीर व मन के कारण ही आत्मा के भी बंधन की भ्रांति होती है, जो ज्ञान या बोध से ही मिटती है।

६. आत्मा चैतन्य है। यही चैतन्य विभिन्न रूपों में दिखाई देता है।

७. आत्मा क्रिया-रहित है। आत्मा स्वयं कर्ता नहीं है और न ही क्रिया इसका धर्म है।यह अक्रिय है। आत्मा की उपस्थिति से ही सब हो जाता है। यह क्रिया उसकी शक्ति का खेल है।

८.  आत्मा असंग है, इसका कोई साथी या परिवार आदि नहीं है। यह अकेला है। यह न किसी से प्रेम करता है और न द्वेष। यह अकेले ही सर्वगुण-संपन्न है।

९. आत्मा निस्पृह है, इसकी कोई इच्छा, आकांशा अथवा अपेक्षा नहीं है। यह न प्रसन्न होता है और न क्रोधित। इसमें न कोई हलचल है और न कोई तरंग उठती है। यह उद्वेलित भी नहीं होती। आत्मा इन सांसारिक कार्यों में लिप्त नही होता। यह सर्वथा निर्लिप्त रहती है। यह संसार उसी की अभीव्यक्ति है, यह उसका शक्ति-प्रदर्शन है।

१०. आत्मा का न कोई वर्ण है, न आश्रम है, न कोई जाति है। आत्मा न कर्ता है, न भोक्ता, न भोग्य विषय है। इन तीनों से परे असंग निराकार और विश्व का साक्षी मात्र है, केवल द्रष्टा है।

११. आत्मा साक्षी मात्र द्रष्टा है – अज्ञानी मनुष्य को भ्रमवश ऐसा लगता है कि आत्मा ही सबकुछ कर रही है। परमात्मा ही सबकुछ कर रहा है, पर वास्तव में आत्मा केवल साक्षी मात्र है, द्रष्टा है।

इस प्रकार आत्मा के स्वरूप को जानना आत्मज्ञान है।

आत्मज्ञान प्राप्त न हो पाने के कारण 

मुख्य रूप तीन कारण हैं-

१. स्वयं का मुनुक्षु न होना,

२. स्वयं में पात्रता का अभाव होना,

३. सद्गुरु का अभाव होना,

१. स्वयं का मुनुक्षु न होना- ज्ञान-प्राप्ति के लिए साधक में इच्छा का होना, पूर्ण रूप से लालायित होना तथा दृढ़ संकल्प का होना बहुत जरूरी है। इनके अभाव में सब साधन होते हुए भी मनुष्य ज्ञान प्राप्त करने के लिए प्रयत्न ही नही करेगा।वह टालता रहेगा -कल शुरू करेंगे, परसों शुरू करेंगे, अभी शुभ मुहूर्त नहीं है। इस प्रकार वह आलस्य-प्रमाद में समय नष्ट करता रहेगा और अंत में खाली हाथ ही रह जाएगा।

अतः ज्ञान-प्राप्ति के लिए अपने में मुमुक्षा उत्पन्न करना जरूरी है। तभी वह आत्मज्ञान की प्राप्ति के लिए हताश हुए बिना सतत प्रयत्न कर सफलता प्राप्त कर सकेगा।

२. स्वयं में पात्रता का अभाव होना – अधिकतर मनुष्योंने भगवान से विमुख होकर अपने शरीर से, संसार से अपना घनिष्ट संबंध बना रखा है। इस कारण उसने माया, मोह, राह, द्वेष, ईर्ष्या आदि कषाय कल्मषों से अपने को भर रखा है। उसके मन में, हृदय में ज्ञान के लिए कोई जगह ही नही बची है। उसके मन में, हृदय में ज्ञान के लिए कोई जगह ही नहीं बची है। इस प्रकार जब कोई पात्र पहले से ही बेकार ही वस्तुओं से पूरा भरा है तो उसमें अन्य कोई काम की वस्तु कैसे रखी जा सकती है! उसके लिए पहले पात्र को खाली करना पड़ेगा, साफ करना पड़ेगा, तभी उसमें उपयोगी वस्तु रखी जा सकेगी।

अतः मनुष्य को पहले अपने को खाली करना पड़ेगा, संसार से अपने जोड़े हुए संबंध को तोड़ना पड़ेगा, तभी उसमें पात्रता विकसित होगी और वह ज्ञान-प्राप्ति का अधिकारी बन सकेगा। अतः पात्रता के लिए मुमुक्षा, प्रखर प्रज्ञा, श्रद्धा, समर्पण, नम्रता आदि गुण आवश्यक हैं।

३. सदगुरु का अभाव होना – सद्ग़ुरु वही है जिसने कुछ पा लिया है; क्योंकि वह ही कुछ दे सकता है जिसके पास कुछ है। जिसके पास कुछ है ही नही, वह कुछ भी नहीं दे सकता, प्रत्युत वह तो भटका और देगा। जब शिष्य ज्ञान-प्राप्ति के मार्ग पर दृढ़ संकल्प के साथ चल देता है तो ईश्वर स्वयं गुरु के रूप के रूप में मार्गदर्शन देने के लिए शिष्य के समक्ष प्रकट हो जाते हैं, पर इसके लिए शिष्य को ज्ञान-प्राप्ति के लिए अपने में विकलता, छटपटाहट जाग्रत करनी होगी।

जब तीनो मिल जाते हैं तो त्रिवेणी का संगम हो जाता है और चेतना प्रकट हो जाती है।

इसलिये जो मुक्ति चाहता है तो उसे विषयों को विष के समान त्याग देना चाहिए और सरलता, दया, संतोष एवं सत्य का अमृत के समान सेवन करना चाहिए।

क्षमा- अकारण अपराध करनेवाले को दंड देने का सामर्थ्य होते हुए भी उसके अपराध को सहन कर लेना क्षमा है।

सरलता – सीधेपन को आर्जव कहते हैं। साधक में सीधा-सरल भाव होना चाहिए, भले ही लोग उसे मूर्ख व नासमझ समझें। अपने उद्धार के लिए सरलता बड़े काम की चीज़ है।

दया – दूसरों को दुःखी देखकर उनका दुःख दूर करने की भावना को दया कहते हैं। अपने सुख और स्वार्थ की पूर्ति के लिए दूसरों के प्रति दया का बरताव करना पाखंड मात्र है।

संतोष – अपने प्रारब्घ के अनुसार जो कुछ भी कम या ज़्यादा मिल जाए, उसमें ही तृप्ति अनुभव करना संतोष है।

सत्य – अपने स्वार्थ और अभिमान का त्याग करके केवल दूसरों के हित के भाव से जैसा सुना, देखा, पढ़ा, समझा एवं जैसा निश्चय किया उससे न तो अधिक और न ही कम – अर्थात वैसे का वैसा ही प्रिय शब्दों में कह देना सत्य है।

इन सदगुणो को अपने आचरण में उतार लेना अमृत का सेवन करने के समान है।

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